बारी तुम्हारी है
बारी तुम्हारी है
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इन दिनों बालकनी में नहीं उतरा करतीं सुबहें
कोई छिप गया है कहीं जाकर
बिना मुझे बताए कि ढूँढने की बारी थी मेरी
बता दिया होता तो वक़्त और जगह तय कर ली होती
खेल की…
सुबह अख़बार पढ़ने, नाश्ता कर लेने के बाद
या अलसायी दोपहरी में नींद की झपकियों के बीच…
दो कमरों से लेकर स्टडी तक
या बरसाती से लॉन तक…
तुम जानते थे तुम्हें आसानी से ढूँढ लूंगी मैं
पीछे से दबे पाँव आकर ढप्पा कर दूंगी तुम्हें…
देखो ! बालकनी में पड़ा अख़बार कैसे फड़फड़ा रहा है
कुल्हड़ की चाय पसंद है न तुम्हे
चख के बताना तो कैसी बनी है.…
जल्दी आओ खेल का वक़्त हो चला है
अब बारी तुम्हारी है…