प्रेम का वर्तमान स्वरूप
प्रेम का वर्तमान स्वरूप
वो वेदना, अतृप्त सी।
संदेह पर, आसक्त थी।
अनुराग की, छाया घनी।
हाँ ! मध्य में, क्यों कर तनी?
कैसे मिलन, ये हो अहो!
प्रिय भेंट हो, कैसे कहो?
है प्रेम भी, ज़िद पर अड़ा।
सह प्रीति के, अविचल खड़ा।।
जब नेह भ्रम, को वास दे।
पिय से मिलन, की आस दे।
तब पूर्णता, मुझ को मिले।
जब प्रेम पथ, से कुछ हिले।।
मैने सुना, गर है सही।
अनुराग अब, सच्चा नहीं।
फिर जीत है, पक्की पिया।
है सोच कर, हर्षित जिया।।
सच सोचती, थी वेदना।
आसान था, पथ भेदना।
संदेह मग, पा ही गया।
भ्रम प्यार में, आ ही गया।।

