प्रेम: एक गूढ़ रहस्य
प्रेम: एक गूढ़ रहस्य
प्रेम को समझने लगी मैं हो गयी हूँ चूर,
ढ़ाई अक्षर से बना ये शब्द कैसा गूढ़।
कभी मैं प्रेम को सरिता समझकर,
समुद्र में मिलती रही,
और कभी पर्वत समझ,
आसमां चढ़ती रही,
कभी प्रेम को समझी मैं वर्षा,
बन बूँद धरती पर जो बरसें,
और कभी चकोर की आँखें,
जो चाँद के दीदार को तरसें,
पर प्रेम को ना जान पायी हो गयी हूँ चूर,
ढ़ाई अक्षर से बना ये शब्द कैसा गूढ़|
जो कृष्ण का जीवन धरा पर,
प्रेम का पर्याय है,
तो रूद्र का प्रचंड तांडव भी,
प्रेम का पर्याय है,
प्रेम है शीतल कभी तो,
चण्ड ज्वाला प्रेम है,
प्रेम में आनंद भी है,
विरह के गीत में भी प्रेम है,
यह भेद ना मैं खोल पायी हो गयी हूँ चूर,
ढ़ाई अक्षर से बना ये शब्द कैसा गूढ़|
प्रेम ही तो त्याग है और,
प्रेम ही बलिदान है,
प्रेम में सर्वस्व अपना,
प्रियतम के नाम है,
प्रेम शब्दों से परे है,
एक अलग झंकार है,
प्रेम ही अल्लाह कभी तो,
प्रेम ओंकार है,
सरगम ना इसकी समझ पायी हो गयी हूँ चूर,
ढ़ाई अक्षर से बना ये शब्द कैसा गूढ़।