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AMAN SINHA

Drama Tragedy Children

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AMAN SINHA

Drama Tragedy Children

परदेसी

परदेसी

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ज़िम्मेदारी के बोझ ने कभी सोने ना दिया

चोट जितनी भी लगी हो मगर रोने न दिया

घर से दूर रहा मैं जिनकी हंसी के ख़ातिर

अपना जितना भी बनाया पर अपना होने न दिया


सुबह की धूप न देखी, चाँदनी छु न सका

गुज़रा दिन भी अंधेरे में, उजाला ना देख सका

तलब थी चैन से सोने की किसी की बाहों में

जब भी घर मैं लौटा, पनाह पा ना सका


दो ठिकानो के बीच ही बसर मैं करता रहा

सभी खुश थे इसी से मैं सब्र करता रहा

जला कर खून जो अपना रोटी कमाई थी

पेट सभी का भरा, मैं मगर आधा ही रहा


जुदाई का खुद से कभी शिकवा ना था

सभी अपने ही तो थे कोई पराया ना था

साथ जब जिस्म ने छोड़ा हिम्मत का

तब समझ में ये आया कोई साथ खड़ा ना था


जब तलक बांटा मैंने सब हँसते ही रहे

अपने हिस्से के ख़ातिर संग बसते ही रहे

जरा सा हाथ जो पसारा मैंने परखने के लिए

जो कभी संग थे मेंरे फिसलते हीं रहे


जवानी खो दी मैंने जिन्हें सजाने में

बुढ़ापा थक नहीं पाया जिन्हे बनाने में

साथ मेरा सभी को बोझ सा लगने लगा

हड्डियाँ मैंने गला दी जिन्हे बसाने मेंं।


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