अरमाँ था बाकी
अरमाँ था बाकी
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ना कोई घर ना कोई इंसाँ था बाकी,
रहने वालों का उस ज़मीं पे बस निशाँ था बाकी।
खेल जब इल्ज़ामात का ख़त्म हुआ,
ज़मीं पे राख आसमाँ में धुआँ था बाकी।
रात भर रुक-रुक के यूँ होती रही बारिश,
जैसे ज़मीं पे उसका कोई एहसाँ था बाकी।
देखके सारा जहाँ घर जो कोई लौटा,
देखने को उसके सारा जहाँ था बाकी।
फुरसत के कुछ पल जब ज़िन्दगी से निकाले,
महफ़िल में दोस्त कोई कहाँ था बाकी।
खर्च होके भी दूसरे के शहर में,
जो जहाँ का था वो वहाँ था बाकी।
ज़िन्दगी को जिसने जाना उसने यही जाना,
हर इम्तिहाँ के बाद फिर एक इम्तिहाँ था बाकी।
दांव पे लगाने को जब कुछ भी ना था बाकी,
जीतने का एक अरमाँ था वो अरमाँ था बाकी।