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कुछ कर जाने से

कुछ कर जाने से

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चुप ये होती नहीं हमारे चुप कर जाने से,

खामोशियाँ बोलती ही रहती हैं नज़र-अंदाज़ कर जाने से।


कैद कर लेते हैं लोग खुद ही को दायरों में,

बात बनती है मगर हद से गुज़र जाने से।


तपती ज़मीन पर चलना आसान तो नहीं,

पर मुश्किल और बढ़ जाती है ठहर जाने से।


मंज़िल तक ले जाते हैं जो समुंदर,

वो होते नहीं पार लहरों से डर जाने से।


सच्चे झूठ पर कायम रहना ही बेहतर है,

बात और बिगड़ जाती है कहके मुकर जाने से।


किसी मतलब से बनते हैं जो रिश्ते,

वो बेमतलब हो जाते हैं मन के भर जाने से।


वक़्त बेवक़्त बेरहम हो जाती हैं हवायें भी,

और फिर रुकती नहीं आंधियाँ घरों के बिखर जाने से।


यूँ जो लगाते हैं लोग चक्कर मंदिर-मस्जिद के,

क्या मिल जाता है खुदा इधर-उधर जाने से।


अमर कर लेना चाहते हैं लोग अपना नाम लेकिन,

फर्क नहीं पड़ता दुनिया को किसी के जीने से मर जाने से।


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