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परछाईं

परछाईं

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एक परछाई सी गुज़रती है

खाली खाली कमरों में

अपलक, अनजान,

अनसुनी सी मेरी आँखें

उसे देखती रहती हैं ...


परछाईं !

आवाज़ देती है उन लम्हों को

जिसे कतरा कतरा उसने जिया था

अपनी रूह बनाया था ...


लम्हों के कद बड़े होते गए

परछाईं ने उनके पैरों में

लक्ष्य के जूते डाल दिए

और अब

उनकी आहटों को


हर कमरे में तलाशती है

दुआओं के दीप जलाती है

फिर थक हारके

मुझमें एकाकार हो जाती है...


उसको दुलारते हुए

मेरी अनकही आँखें

बूंद बूंद कुछ कहने लगती हैं

हथेलियाँ उनको पोछने लगती हैं

फिर स्वतः


फ़ोन घुमाने लगती हैं

'कैसे हो तुम ? और तुम ? और तुम ?

... मैं अच्छी हूँ '

क्या कहूँ ...

कि खुद को इस कमरे से उस कमरे

घूमते देखा करती हूँ,


क्या समझाऊँ

खाली शरीर की बात क्या समझाऊँ !

क्या कहूँ....

कैसा लगता है खुद से खुद को देखना ...।


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