प्रभु से प्रेम की माया।।
प्रभु से प्रेम की माया।।
प्रभु से प्रेम की माया,
ना कोई समझा,
न समझ पाया।
नयन मूंदे ढूँढा तुझको,
मन खो बैठा साया,
हर साँस ने तेरे ही,
नाम का गान गाया।
तू ही तू है मेरे अंतर्मन में,
हर आहट में तेरी छाया,
भीड़ में भी तूं तन्हा में भी,
तेरे बिन ये जग सूनी माया।
ना रत्न, ना मोती,
ना सोना-चाँदी
बस इक झलक तेरी,
दिल को सुकूँ दे जाती
मन मंदिर में दीप जलाए,
तेरे प्रेम में जग को भुलाए।
ना चाहत धन की,
ना तख़्तों ताज की
आरज़ू हैं कोई,
तेरे साथ जो बीते पल ही ,
रुह को लगे जैसे जन्नत कोई।
मेरे मन मंदिर में बस गया तू,
मधुर स्मित तेरी राधा-सी धुनू।
प्रेम की बंसी जो तूने बजाई,
जग को मोहित कर प्रभु,
मेरी सुध-बुध ले जाई।
जग कहे कि पागल हूँ मैं,
हँसते मेरी तपस्या पर,
वो क्या जाने इस विरह को,
जो तूने ही दिया है अंतर।
तेरी प्रेम अगन है कोई,
ना बुझेगी, ना कभी बुझा पाऊं ,
इस प्रेम अगन में जलकर ही,
तुझमें सदा मैं समा जाऊं।
हर अश्रु एक अर्घ्य तुझको,
हर धड़कन में तेरा गान,
मिट जाये ये देह प्रभु,
पर मिटे ना कभी तेरा नाम।
प्रभु से प्रेम की माया,
ना कोई समझा,
ना समझ पाया।
जो समझ गया वो सब पा गया
जो न समझा, वो सब खो दिया ।।
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स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ"
विरमगांव, गुजरात।
