प्रभु को अंतर्मन से पुकारो ! !
प्रभु को अंतर्मन से पुकारो ! !
जाति - धर्म और ऊंच - नीच में मगन थी जब यह दुनिया
उसे ठग लिया आँख के सम्मुख कोरोना एक बनिया
पहुंच चुका हर देश ये दानव तोड़ के बंधन - सीमा
हाँ विकसित विज्ञान तन्त्र का निकल गया अब कीमा
ये तेरा है ये मेरा है किया जो करते थे
झूठी शान ओ शौकत पर वे पल - पल मरते थे
सर्वश्रेष्ठ हम मानव ऐसा दावा करते थे
विजय पा लिया कुदरत पर ताना भी कसते थे
बीस सदी की अवधि नहीं कम मितवा होती है
पहुँच कहाँ से कहाँ गए मगर मानवता रोती है !
एक दूसरे का हित साध ही दुनिया चलती है
जहां बिछड़ गया साथ कि नैय्या डगमग करती है
शांत बने रहे वृक्ष वक्ष पर चली थी आरी जब - जब
कुपित नहीं हुई धरती कोख उजाड़े थे जब तुम सब
अरे सागर भी विचलित ना होकर शांत रहा बर्बादी पर
आसमान पर्यावरण से हतप्रभ सोता रहा तूं अब तक
अरे मूर्ख मानव ! तुम कब तक खुद को छला करोगे
जिस शाखा पर बैठे उसको फिर फिर क्या काटोगे ?
तुम मनु के वंशज हो हो ना निराश और ना हारो
एक बार बस ! एक बार मिल - जुल कर प्रभु को अंतर्मन से पुकारो !