पीढ़ी-पीढ़ी ज्ञान बदलता
पीढ़ी-पीढ़ी ज्ञान बदलता
दादा जी के संस्कारों में,
चाचा जी की बातों में,
पापा की हिदायत में,
पीढ़ी-पीढ़ी बदले बातें,
बदले विचार हर वंश में,
मैं बालक हूँ, है नया ज़माना,
है परिवेश सबसे बदला साI।
सोच पडूँ दादा की नज़रों में,
सब भ्रष्ट संस्कार हो गया,
चिट्ठी का युग अंत हुआ है,
डब्बा फ़ोन डब्बा हो गया।
फिर चाचा के दिल से सोचूं,
दादा के रूढ़ बातें मन न भाये,
ना भाये पापा के संस्कारी ज्ञान,
सब से अलग बनाने को शान,
चाचा को है इसका अभिमान।
फिर पापा के दरिया दिल को,
पल-पल मैं दिल से महसूस करूँ,
लथपथ हो जब आते वापस,
करके कठिन श्रम दिन भर को,
इतना सब कुछ सहते-समझते,
पापा लगते सबसे प्यारे,
चाचा से भी समझदार,
दादा जी के प्रतिबिम्ब।
फिर पापा जैसा बनने को,
मैंने कदम बढ़ाया है,
पीढ़ी-पीढ़ी, सीढ़ी-सीढ़ी,
सबके साथ सामंजस्य हो,
पापा के क़दमों पे चलकर,
जीतना है हर जंग मुझे,
नहीं देखना और किसी को,
रंगना यही बस रंग मुझे।