फीकी पड़ चुकी है शाम
फीकी पड़ चुकी है शाम
मुझे दिखते हैं अंधेरे में
फड़फड़ाते किताबों के पन्ने
ठंड पड़ चुकी
कलम की नोक से।
रिसती हुई स्याही
अल्फ़ाज़ों के इशारों पे नाचती
कहीं ज्यादा कहीं कम साँस लेती।
गहरे धब्बे घाव काग़ज़ पे देती
वीराने ने कोई जगह नहीं छोड़ी
मेरे मकान में किसी के आने के लिए।
खिड़कियों पे आकर पर्दो से छिपकर
झाँकते हैं उजाले
कसरत करते पंखे।
फीकी पड़ चुकी है शाम
इन चमकती ऊँची इमारतों के पास
मैंने अक्सर रातों को मरते देखा है
ठंडी मीठी हवाओं को।
बेवजह दम तोड़ते देखा है
मखमल की चादर पर
सींचे थे जो हमने ख़्वाब।
बे-मुकम्मल बन चुकी है पैनी सुई
चुभती है दिन और रात
आग़ाज़ नहीं अब अंजाम है हमारे साथ।
निकलते सूरज में बुझते चिराग की है बात
ज़माने की गलियां भी अब तंग पड़ गयी
हमारे वादों की फुलझड़ियाँ बेरंग बिखर गई।
भीड़ में खड़ा मैं वो शख्स हूँ जो
भाग तो रहा है मगर धसता जा रहा है।
शीशे में खुद को रोज़ देख हँसता जा रहा है।।