दो औरतें
दो औरतें
दरवाजा खुलते ही
वे दोनों आमने-सामने थीं
एक देहरी के भीतर
एक देहरी के बाहर से
निहार रहीं थीं इक दूजे को
तीन महीने बाद।
रोक रखा इस आपदा के डर ने
कदमों को।
नहीं तो दरवाजा खुलते ही
आंधी की तरह घुसती थी वह।
आज थी असमंजस में
अंदर जाये या नहीं।
देहरी के अंदर वह
खुद समझ नहीं पा रही थी
उसे देख खुश हो
या इतने दिनों बाद आने के लिए
लगाये फटकार पुराने दिनों की तरह।
सूखा चेहरा निस्तेज आँखें
दोनों ही तरफ थीं।
फैसला देहरी के अंदर से लिया गया
रास्ता छोड़कर।
जमीन पर बैठे
हाथ में चाय का कप पकड़े
आपबीती कहती रही वह।
देख रही थी बिखरा पड़ा है घर
थकी हुई है वह
उदास भी और शायद अकेली भी।
कुरेदना वह भी चाहती थी पूछकर
भैया कैसे हैं?
इन तीन महीनों ने
खड़ी कर दी थी एक दूरी
जिसने इन शब्दों को पहुंचने न दिया
उस तक।
अभी कुछ दिन और रुको
कहते कहते ठिठके थे शब्द
ठिठकी थीं आँखें
उसकी नजरों को पढ़ते हुए
लेकिन कभी-कभी आ जाया कर
ऐसे ही मिलने।
देर तक दरवाजे पर खड़ी
वह देखती रही उसे जाते
नौकर मालकिन के परे
उन दोनों के बीच
रिश्ता दो औरतों का था।