दौर-ए-आवारगी
दौर-ए-आवारगी
मखमल की चादर पर सींचे थे
जो मुसलसल ख़्वाब तेरे साथ।
वक़्त की खाद से बन के पैनी सुई सी
चुभते हैं अब दिन-रात।
संभल संभल के
गिर जाते हैं हम।
ये अदा भी ज़िन्दगी पे
एतबार करने से मिली है।
यूँ तो लोग बात
अपने-अपने इबादत की
रख रहे थे।
एक अनजान भीगे रास्ते की ओर
इशारा कर हम भी निकल पड़े।
मेरा तज़ुर्बा बेकल होकर
मुझ से ये कह रहा है कि
बदन में कपकपी ठंड से नहीं
उन बिगड़ैल यादों से है।
किन बातों से प्यार करे
किन बातों पर नाज़ रहे।
कि अब यहाँ पहचानता कौन है
मुझे मेरे सिवा।
इस पैमाने की गहराई का
अंदाज़ा है हमें
एक दौर-ए-आवारगी
काटी गई है इसमें।
घर कहाँ चलता है जनाब
लिख के दिल-ए-हाल बताने में
महफ़िल में वाह-वाह और
चीख़ उठता हूँ मैं वीराने में।।
