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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract Fantasy

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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract Fantasy

फैंटसी

फैंटसी

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सागर के उस पार बैठी है इक स्त्री 

जो खेल रही है पानी से 

कल - कल करता पानी 

मदमस्त है उस स्त्री की तरह 

वह स्त्री है स्वर्ग से उतरी 

कोई अप्सरा सी 

उसकी मुस्कान बड़ी मोहक है 

उसकी आंखें बोल रही हैं 

उसके ठीक पीछे बैठा है एक पुरुष 

इतना सुन्दर कि मैं बस देखती जा रही हूं 

वो सुलझा रहा है उसके बाल 

कुछ देर बाद वो उसके सामने आता है 

रखता है उस स्त्री की गोद में सिर

स्त्री फिराती है उसके बालों में उंगलियां 

उस पुरुष की आंखों से निकलते हैं आंसू 

स्त्री फैलाती है हाथ और पी लेती है आंसू

वे आगे बढ़ते हैं 

मैं बढ़ती हूं उनके पीछे -पीछे 

स्त्री मतवाली होकर चलती है 

चुभता है उसके पैर में कांटा 

पुरुष निकालता है अपने हाथों से 

वे चल रहे हैं एक दूजे का हाथ थामे

हंसते -मुस्कराते, बातें बनाते 

न जाने कहाँ जा रहे हैं 

मैं बस देख रही हूं 

उनकी आंखों में है बस प्रेम 

उनकी बातों में है बस प्रेम 

वे प्रेम से बने हैं 

उन्होंने नहीं सुना घृणा का नाम 

वे चलते जाते हैं ,पीछे पीछे मैं भी 

पुरुष थक जाता है 

स्त्री दबाती है उसके पैर 

वे फिर चलते हैं चलते जाते हैं 

इस बार स्त्री थक जाती है 

पुरुष उठा लेता है उसे गोद में 

अब वे दोनों चलते हैं 

उनके प्रेम में त्याग है, सम्मान है 

वो पुरुष नहीं कहता स्वयं को बड़ा

ना वो स्त्री मानती है स्वयं को बड़ा

वे दोनों एक हैं 

उनकी आँखों में केवल है प्रेम 

मैं चाहती हूं 

अपने प्रेम से बनायें वे दोनों 

एक नई दुनिया 


उस दुनिया में हों 

सारे स्त्री पुरुष उन जैसे 

प्रेममयी 

उस दुनिया में केवल हो प्रेम 

इतने में आती हैं सागर लहरें 

लहरों संग मैं भी आती हूं इस पार 

और देखती हूं 

ये केवल फैंटसी है 

धूमिल होते जा रहे हैं वे स्त्री पुरुष  

साफ साफ दिख रही है मेरी दुनिया 

मैं लौट आती हूं अपनी दुनिया में 

जहां लोग लड़ रहे हैं 

चीख रहे हैं 

सब भाग रहे हैं 

ना जाने कौन सी प्रतिस्पर्धा में 

बेचारा प्रेम सुबक रहा है एक कोने में 

और सुबक रही हूं मैं .....

    


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