फागुन
फागुन
जिस दिन सपने से जगती हूँ
मैं तुम्हें याद बहुत तब करती हूं
गीली आंखें भीगा मनवा
रोम रोम टेसू दहकें
फागुन की रातों में अक्सर
रंग-गुलाल सिरहाने दमकें
कैसी अजब कहानी कहते
दिप- दिप करते सब तारे
रातरानी की बाहें पकड़ें
मौन ह्रदय को झुलसावे
रंग बिरंगे अरमानों की
जलती देखूं जब होली
सुबह धुलेंडी की आशा में
पथ पे सजती नैनों की डोली
भीग जाने को आतुर तन-मन
श्वेत वसन ओढ़े है बैठा
वातायन के खुले कपाटों
संग आया एक शीतल झोंका
याद तुम्हारी अंगड़ाई संग
महुआ- महुआ गमकाती है
छलना नीति फिर निष्ठर हो
नागिन सम सपने डसती है।