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Sheetal Raghav

Inspirational Others

5.0  

Sheetal Raghav

Inspirational Others

फागुन के अनेको रंग

फागुन के अनेको रंग

3 mins
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फागुन में ये रंग कहाँ

से आते है, 

सतरंगी सरगम की तरह फ़िज़ा में 

कहाँ ये समां जाते है ?

बोलो ना ! 

फागुन में ये रंग कहाँ से आते है ? 


इंद्रधनुष के रंगों से या 

फिर तितली के पंखों से, 

क्या हम, 

इन्हें चुरा ले आते है ? 

बोलो ना ! 

फागुन में ये रंग कहाँ से आते है ?


राधा जी

की सतरंगी ओढ़नी से,

या कान्हा की बोली से, 

या दोनों की रास लीला की प्रेम की होली से,

हम इन रंगों को ले आते है,

जो दिलों में प्रीत की उमंगें भर जाते हैं,

बोलो ना ! 

फागुन में ये रंग कहाँ से आते है ?


जंगल में नाचते मोर के पंखों से, 

या गोरी के पल्लू से, जो सजधज - बन- ठन बैठी है,

या माँ की ममता की लोरी से,

या फिर कहूं की प्रेम चकोरी से, 

क्या हम इन्हें उधार ले आते है, 

बोलो ना !

फागुन में ये रंग कहाँ से आते है ? 


खेतों की पीली सरसों से, 

या टेसू के सुर्ख रंगों के फूलों से, 

कभी सुर्खाब पक्षी के पंखो से,

या समझूँ मैं आसमान में उड़ते पक्षी - परिंदों की टोली से,

क्या हम ?

इन्हें जमीन पर उतार ले आते हैं?

बोलो ना ! 

फागुन में ये रंग कहाँ से आते है ? 


सुन ओ गोरी - 

मिला जुला है स्वरूप होली का, 

माँ की ममता और लोरी से, गोरी से, राधा और प्रेम चकोरी से, 

कृष्ण के मुखमंडल पर छाई सरस लालिमा की चितचोरी से, 

पक्षी के कलरव से,

या कभी आसमान की गहराई से,

समुद्र की लहरों से, या कभी वन में नाचती मोरो से,

ये रंग यही से आते हैं, 

और यहीं पर घुल - मिल जाते हैं,

तभी तो ये हर मन को लुभा जाते हैं,

अरे' ओ पगली ! 

यह रंग यही धरा से ही तो आते है, 


प्रेम से विश्वास से, 

दो दोस्तों के प्यार से, 

पिता के स्नेह और फटकार से, 

भक्ति और भाव से, 

भगवान और भक्त के असीम प्रेम और सद्भाव से, 

प्यार स्नेह और

मेल - मिलाप से, 

भाईचारे और सहिषुणता से,

ये रंग मैं से आकर, 

हम में ही समां जाते हैं,

ये रंग यहीं के होते हैं, 


जो होली में उभर कर आते हैं,

उमड़ - घुमड़ कर बरसते हैं, बादल पर छा जाते है, 

सुन ओ गोरी ! 

कहीं और से नहीं ये रंग तेरी और

मेरी प्रीत से आते है।

जो हम संजो कर रखते हैं और फागुन में दिलो के

अधिकोष से निकाले जाते है, 

बिना ब्याज, 

खेले और उड़ाए जाते है, 

जितना भी खेलो जितना भी उड़ाओ

ये बार - बार बढ़ जाते हैं। 

समझी तू पगली ! 

की फागुन में ये रंग कहाँ से आते है ?

गांधी जी की अहिंसा से, 

सुभाष चंद्र के नारों से,

वीर भगत सिंह और चंद्र शेखर जैसे आजादी के प्यारों से,

बिस्मिल के दिल में उठी आजादी के चिंगारों से, 

ये रंग इसी माटी से आते हैं, और आजादी की छठा बिखराते हैं। 

देखे ओ पगली ! 

ये फागुन के रंग यही से आते हैं।


यमुना जी की बहती लहरों से, शिव जटा से निकली पावन गंगा मइंयाँ  से, 

अमरकंटक से अवतरित हुई नमामी नर्मदे के जयकारों से,

महेश्वर में और ओमकारेश्वर में मचलती नर्मदा के धारों से,

गोदावरी के तट पर आये अनेकानेक श्रद्धालुओं से,

मंदिर में उठती घण्टा ध्वनियों से, 

गेरुए की महत्ता से, 

हिमालय की तटस्था से, 

ये रंग हम और तुम से ही मिलकर बन जाते हैं, 

जो फागुन में खेले जाते हैं, 

ये रंग हर मौसम में आते है,

किन्तु फागुन में ही पहचाने जाते हैं,

ये रंग हम ही से आते हैं, 

और हर दिल पर छा जाते हैं।


इसी को फागुन कहते है ।

ये रगं धरा के होते है,

और धरा में ही मिल जाते है।

समझी ओ पगली ! 

ये रंग रीत और प्रीत के होते है,

ये संस्कारों के रंग,

हमारे

देश की माटी में ही पाये जाते है। 

अब ना कहना,

अब ना पूछना, 

कि ये , रंग कहां से आते है, 

ये रंग कहां से आते है।


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