पदचिन्ह या किताब
पदचिन्ह या किताब
पापा, संजो लिया है मैंने,
आपके जीवन के हर एक पन्ने को,
बन गयी है वो एक,
असंख्य पृष्ठों की पुस्तक,
जब जब लगता हैं,
लड़खड़ा रहे हैं पग,
खोल कर वह पृष्ठ,
प्रेरणा पा जाती हूँ।
चल देती हूं पुनः,
एक सबल वेग से,
अकेले ही उस पथ पर,
जिसके पदचिन्ह,
आपने ही तो बनाये थे।
जो बन गए मेरी विरासत।
आज सजो रही हूँ
वह सारे पदचिन्ह,
फिर से मैं एक पुस्तक में,
जो मेरे भी वसुधा से प्रस्थान के बाद,
बन सके अनेको की प्रेरणा,
आपका हर सत्य,आदर्श,प्रेरणा,
केवल मेरी विरासत तो नहीं,
अमानत है धरा की,
धरा के पुत्रों की,
जिन्हें सौप कर,
मुझे भी तो प्रस्थान करना है,
एक दिन,
आपके हर पदचिन्ह पर चलकर।
बहुत याद आते हो आप,
हर दिन,हर पल।
और आज तो अश्रु संग,
जब चले गए अनन्त यात्रा पर।।