ओ प्रिय
ओ प्रिय
ओ प्रिय ! विस्मरण होती नहीं वो रात्रि
जब हृदय तुम्हें अर्पण किया
थी वो कितनी मधुर बेला
जब दो आत्माओं का मिलन हुआ ।
सिंदूर बन दमकता प्रेम तुम्हारा
रोम रोम में प्रवाहित स्पर्श तुम्हारा
खोने लगी मैं स्वयं को
और पाने लगी स्वयं में तुमको
खींचकर समीप ज्यों मैं हुईं ।
ओ प्रिय !
प्रथम दृष्टि जब देखा था
मन ने तभी पहचाना था
चाहे अंतराल हो वर्षों का
या अंतराल हो जन्मो का
हर जन्म में मैं हूं तुम्हारी
यह मन है तुम्हारा
तुम पर ही है अधिकार मेरा
जाती कहां है मैं और कैसे
नियति मेरी जब तुम से ही बंधी
तुम से ही
हां ! सहर्ष तुमसे ही
बंध कर मैं रह गई।
ओ प्रिय!
थाम मेरा हाथ जब तुमने
अधिकार अपना जताया था
देकर अपना नाम तुमने
बंधन अपना बांधा था
सारे बंधन संसार के
सारे बंधन नातों के
मैं छोड़ आई
बिना किसी आहट के
आई मैं चुपचाप
संग पवित्र प्रेम भी चली चुपचाप ।
ओ प्रिय!
रूप मेरा, प्रेम तुम्हारा है श्रृंगार मेरा
आलिंगन में तुम्हारे है संसार मेरा
नैन तुम्हारे, दृष्टि मेरी
तुमसे ही है सृष्टि मेरी
सुर तुम्हारा , ताल मेरा
है युगों-युगों से बंधा जीवन हमारा
मैं ही गीत तुम्हारे संगीत में
गूंज रहा है प्रेम
जीवन की वीणा में ।