ओ मानव !
ओ मानव !


चीत्कार क्यूँ उन सबका तब, तू सुन न पाया था
ओ मानव ! प्रकृति संग तूने तब, कैसा स्वांग रचाया था।
उस बेबस माँ का करूण रुदन, क्यूँ तुझ तक पहुँच न पाया था
ओ मद में डूबे मानव ! क्यों तुझको भान ना आया था।
वो मृग अब तृष्णा में तेरी, खुलकर विचर ना पाया था
ओ मानव! उसके अपनो का हाल, क्यों तू समझ ना पाया था।
नग्न धरा को देख, तू कितना मंद-मंद मुस्काया था।
ओ मानव ! मुख तुम्हारा तब लज्जा में, क्यों झुक न पाया था।
साँसों में तब घोल ज़हर , चैन से कैसे तू सो पाया था
ओ मानव! जान कर तूने तब,हृदयों में ये सीसा पिघलाया था।
चीत्कार क्यूँ उन सबका, तूने यूँ विसराया था
ओ मानव ! अब त्राहि त्राहि देख चहुँ ओर, तेरा अंतर्मन घबराया है।