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PRADYUMNA AROTHIYA

Abstract Classics Children

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PRADYUMNA AROTHIYA

Abstract Classics Children

नुमाइश की रात

नुमाइश की रात

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वक़्त कितनी शीघ्र गुजर जाता है।

यादों का अपना उपहार छोड़ जाता है।।

शहर में नुमाइश देखने का 

बहुत वक़्त से मेरा मन था।

एक रोज जब पिताजी शहर को जा रहे थे

मैं भी उनके साथ था।।


यहाँ से वहाँ और वहाँ से कहाँ-कहाँ

हम घूमते थे।

जिंदगी में अनुभवों के सिलसिले जोड़ते चले थे।।

नुमाइश की अदाकारी का अनुभव

रात की पनाहों में दिखा था।

मासूम ख्यालों का उत्सुकता भरा संग

पिताजी की उंगली पकड़ने में दिखा था।


चाट-पकौड़े, मिठाइयां, तरह तरह के खिलौने,

तरह तरह की आवाजें,

ऊँचे ऊँचे चरख, छोटे छोटे खेत

और बहुत कुछ दिखा था।

कल्पना की भूमि पर कल्पना के तम्बू में

जीने का एक अद्भुत अहसास

पिताजी के साथ दिखा था।।


वक़्त खींचने से अगर खिंच जाता

तो यादों को फिर से जीने का मौका मिल जाता।

कभी मन सोच बैठता कि एक दिन बीते वक़्त को

अपने पास बुला लेगा

पर जब भी उत्सुकता से हाथ बढ़ता,

वह हाथों की कैद से बहुत दूर निकल जाता।।


वो स्मृति की खुशबू आज भी 

मेरे आस पास महकती है।

पिताजी के साथ गुजरी वो नुमाइश की रात 

बनकर शब्दों में यादों की कहानी

दीवाली के दीपों सी चमकती है।।


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