नटखट बचपन
नटखट बचपन
मैंने आज,
बचपन को अपने,
परछाई के पीछे भागते देखा,
देखा कैसे वो उसे,
छूने की कोशिश करता,
सहम जाता ठिठक जाता,
कभी देख कर उसे,
फिर अपनी ही बेफिक्री में
सब भूल बढ़ जाता आगे,
बचपन कितना अल्हड़,चंचल होता है,
ना भूख ना प्यास,ना कोई चिंता,
ना डर किसी का,
जो मन आता वो करता,
जिद में अपने कभी अकड़ता,
अपनी ही तोतली बोली में,
बहुत कुछ कह जाता,
कभी खूब रोता, लिपट मां के आंचल में,
कभी मुस्कुरा के,
खिलखिल हंस पड़ता,
शौक भी उसके निराले,अजब गजब,
बर्तनों से खेलता,
मिट्टी में लोट पोट होता,
पानी में छपछपाता,
दिन भर में कितनी बार नहाता,
सोते सोते बड़बड़ा के उठ जाना,
लोरियां सुन फिर सो जाना,
सच कुछ अजीब सा
कुछ बेफिक्री सा
है ये बचपन।
