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Sheetal Raghav

Inspirational

4  

Sheetal Raghav

Inspirational

नर और नारी

नर और नारी

4 mins
481


प्रहार था,

प्रचंड,

और,

कुठाराघात भी,

मन पर हुआ था,

इसलिए घाव जरा,

गहरा हुआ था,

दिखाई नहीं दिया, तन पर,

क्योंकि,

यह प्रहार तो,

मेरे मन पर हुआ था,


स्त्री हूं,

स्त्री की गरिमा का,

भान है, मुझको,

असहनीय,

असहज पीड़ा थी,

जिसमें जिस्म तो,

घायल था ही,

पर मन, ज्यादा घायल हुआ था,

अनगिनत,

और,

बिना गिने जा सकने वाले,

असंख्य,

घाव, मुझे क्यों दे डाले,

जब मेरा,

कोई कुसूर ही नहीं था।


मैंने कोई अपराध ही नहीं किया था,

तो,

किस अपराध की?

इतनी बड़ी सजा,

मुझे उसने दे डाली ?

कितनी ही ,

स्त्रियां, लड़कियां,

शारीरिक,

और,

मानसिक यातना के,

इस दंश के प्रहार,

तन और मन पर झेल जाती हैं,

और बैठ जाती है, खामोश

चेतना विहीन !


एक आत्मग्लानि के,

बोझ से,

काश !

काश !

और सिर्फ काश !

का दामन थाम कर,

परंतु,

यह मद् मे डूबा मानव,

अभिमान से चूर !

समाज के, 

शांति के नाशक,

कहां चुप होकर बैठने वाले हैं,

निकल पड़ते हैं,

अंधेरी रात में,

नए शिकार की तलाश में,

शिकार कोई और नहीं,

मै और तुम ही तो होतींं है,

यह निशा, अर्धरात्रि भी,

हताश और घायल है,

निशब्द ! परेशान,

स्तब्ध

और,

नर के कर्म पर,

विचलित,

और

शर्मिंदा है।



यह नर नाम का प्राणी,

किस असहज धुन में पागल है,

जिस नारी की,

कोख से जन्म लेता है,

उसे ही कर देता,

मन और तन से घायल है,

स्त्री की गरिमा का,

काश !

इसे भान हो जाता,

कि,

स्त्री तो एक अविरल बहती गंगा है,

जिसके सम्मान में,

इस धरा के तो क्या ?

आसमान में रहने वाले,

देवताओं का भी,

सिर भी सम्मान में,

नतमस्तक हो जाता है,


स्त्री की महिमा समझते हैं,

और उनकी,

महिमा के गुणगान वह गाते हैं,

कितने ही रूप,

स्त्री,

पा जाती है,

कभी सखा,

कभी बहन,

कभी मां,

तो,

कभी अपनी ही स्त्री बन जाती है,


प्रहार,

और,

कुठाराघात,

का खेल अब बंद करो,

अब बस बंद करो,

सम्मान नहीं कर सकते,

स्त्री को,

तो मत करो,

पर,

स्त्री के पास,

इंसान होने का हक रहने दो,

दर्द इसे भी होता है,

तकलीफ भी बहुत होती है,

जब कुछ,

कोख को कलंकित,

करने वाले,

नर को,

अपनी कोख से,

जन्म देकर,

अपनी,

कोख पर ही नारी शर्मिंदा होती है,


स्त्री का सम्मान मत करो,

पर स्त्री के पास,

इंसान होने का हक तो रहने दो,

इंसान होने का हक तो रहने दो.....


कभी-कभी,

नारी और उससे जुड़ी,

अन्याय की गुत्थी,

उलझ जाती है,

इस गुत्थी का अर्थ,

बहुत ही गूढ़ है,

अभी वह,

वक्त के गर्भ में,

पड़ा हुआ एक शून्य है,

शून्य का अर्थ भी,

बाहर आ जाएगा,

जब भविष्य का सच,

प्रहार बन,

आपके सामने,

खड़ा हो जाएगा,

संभल जाओ,

हे ! नर,

अभी भी वक्त है,

वक्त है,

अभी भी,

संभल जाने का,

तो संभल जाओ, और,

सजग तुम हो जाओ,

ब्रह्मांड का,

हर सत्य,

और,

उसकी प्रतिक्रिया,

दोनों ही अटल है,

नर सभी बुरे हो,

यह गलत है,

कुछ के कर्म,

अविस्मरणीय होते हैं,

नर होना भी आसान नहीं,


कभी यह दोस्त,

कभी हमदर्द बन जाता है,

बन जाता है,


यह भी प्यार का सागर,

जब वह एक पिता बन जाता है,

रख लेता है,


लाज,

बनकर पुत्र और भाई,

पुरुष की महिमा भी,

नहीं, आज तक समझ में आई,

कितने ही गम सह जाता है,

पर आग और आँच,

दोनों की लपटों से,

यह हमें बचाता है,


परंतु,

कुछ निंदनीय,

नरो की मुद्रा से,

यह भी तो स्तब्ध रह जाता है,


क्या इनका मन,

इनको तनिक भी नहीं कचोटता,

जो घिनौना अपराध यह कर जाते हैं,

कल यह भी,

पिता की पदवी को पाएंगे,

बन पिता,

यह कैसे,

अपने फर्ज को निभा पाएंगे?

फिर अपनी,

स्त्री और अपनी ही कन्या से,

कैसे नयन मिला पाएंगे,


जब पता उन्हें चलेगा,

तो क्या ?

यह शर्म से,

धरा में,

धस नही जाएंगे,

जब घर की नन्हीं कली पूछेगी,

पापा,

यह हवस क्या होती है ?

क्या ?

तुम बता पाओगे,

अर्थ,

हवस का,


उसे समझा पाओगे ?

तब आप,

उस नन्हीं कली का

तोतली भाषा,

मे, उठे सवाल का

जवाब दे पाओगे


क्या ?

उस से नजरें,

मिलाकर कह पाओगे,

तुम भी उसी अपराध की ग्लानि में हो,


उसके दिल में उठे,

इस असभ्य से ,

सवाल का क्या तुम जवाब दे पाओगे?

क्या? 

तुम सच में जवाब दे पाओगे?

क्यों?

अंजाम बुराई को,

यह कलंकित नर दे देते हैं,

और समाज में,

कलंकित और निंदनीय,

अपने आप को कहला लेते हैं,


क्या ?

तनिक भी मन इनका,

नहीं कचोटता,

जो गिनोना अपराध यह कर जाते हैं?

कली के मन में उठ जाता ,

एक सवाल है,

जब अपने ही ,

कुटुंब का,

नर यह अपराध कर जाता है,

नन्हे से दिल मे,

एक बड़ा सा उठा बवाल है,

क्या तुम ?

उससे नजरें मिला पाओगे,


अगर नहीं,

तो,

यहीं थम जाओ,

रुक जाओ यही?

और,

स्त्री सम्मान की राह पर,

आगे बढ़ जाओ,

स्त्री और पुरुष का साथ,

बहुत ही प्यारा है,


चोली दामन का साथ यह है,

यह तो बहुत पुराना नारा है,

चोली की आड़ में मां दूध है, पिलाती,

और दामन को,

हे नर !

तुम बचा जाओ, 

ना शर्मिंदा एक स्त्री होने पर,

ना मैला,

इसे कोई कर पाए।

आज घर की स्त्रियों के सम्मुख, 

तुम यह प्रण उठाओ,

नहीं धूमिल यह होने पाए,

आज घर की स्त्रियों के सामने,

तुम यह कसम उठा लो,


जिस दिन नर,

यह प्रण उठा जाएगा,

सच मानो यह,

प्रचंड प्रहार,

और,

कुठाराघात,

तन पर तो क्या ?

किसी स्त्री के मन,

पर भी कभी भी,

नहीं हो पाएगा,

धरा प्रसन्न होकर गुनगुनाएगी,

तब सब समाज में ,

शुभ हो जाएगा,

सही अर्थों में तब,

नर और नारी का साथ,

हो पाएगा।।




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