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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

नफरतों का शहर में अकेला हूं

नफरतों का शहर में अकेला हूं

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नफरतों के शहर में, मैंअकेला हूं

ढूंढ रहा में भाईचारे का मेला हूं

दिखता नहीं कहीं दोस्ती-मंजर,

दिखते बस स्वार्थ से भरे समंदर,

ईर्ष्या, द्वेष का खा रहा केला हूं


नफरतों के शहर में, मैं अकेला हूं

कोई लूटता है, मासूमियत मेरी

कोई लूटता है, ईमानदारी मेरी

सही लोगों में, पागल अकेला हूं


जो कहना वो मुँह पे कह देता हूं

इसलिये लगता सबको करेला हूं

नफरतों के शहर में, मैं अकेला हूं

ज़माने के झूठे गुलाबों को लगता,

सत्य का शूल, मैं बहुत नुकीला हूं


टूटे रिश्तों को बचानेवाला थैला हूं

वो नहीं आते है, पास ज़रा भी मेरे

जो सोचते में पागल अलबेला हूं

नफरतों के शहर में, मैं अकेला हूं


ढूंढ रहा में भाईचारे का मेला हूं

ढूंढ रहा घर स्वर्ग का वो बेला हूं

जहां फैलाऊँ संयुक्त घर रेला हूं

घनघोर अमावस्या की रात में,

रोशन हो रहा, चाँद अकेला हूं


नफरतों के शहर में, मैं अकेला हूं

पर लड़ूंगा में अभिमन्यु बनकर,

वासुदेव कृष्ण का जो में चेला हूं

नफरतों के शहर में, मैं लगाऊंगा

भाईचारे का एक मजबूत ठेला हूं।


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