निशा की ओर
निशा की ओर
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धूप ढलने लगी है,
साँझ की ओर बढ़ने लगी है,
शशि तिमिर हरने का प्रयास है,
सितारों की खोज में चंचल मन,
ताराक्ष बन आकाशगंगा का आभास है।
नारंगी चादर से ढका विशाल सागर,
सौंदर्य तृप्ति से पूर्ण अंतर्मन की गागर,
विहग उढ़ चले घौंसलो की ओर,
नौकाओं से घिर रहा नदियों का छोर।
कार्य पूर्ण कर दिन का पंथी,
अपनी दुनिया को चलता है,
पर्वत के पीछे छिपा सूर्य भी,
धीरे-धीरे ढलता है।
उत्तर में ध्रुव का कीर्तिमान
विष्णुभक्त की भक्ति का प्रमाण
ग्रह, ग्रहिकाएँ निमित्त बन
आदित्य साम्राज्य का निर्माण।
हर दिन भोर घिरा हो,
चाहे व्याकुल मन
पर निशा का होना ही
सुखद सवेरे का आगाज़ है,
भोर साँझ का यह खेल ही,
जीवन परिवर्तन की हुंकार है।