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कुछ खो गया है

कुछ खो गया है

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उस एक प्याली चाय और परिवार का साथ

कहीं खो गया लगता है,

जीवन की भाग दौड़ में जागता हुआ इंसान

कहीं सो गया लगता है।


बात थी वो जब घर के आँगन में गृहलक्ष्मी,

अन्न धन सुखाने जाती थी,

और वो संकरी गलियाँ,

न जाने कितने किस्सों से भर जाती थी।


चौपाल पर यारों का वो मिलना,

पिता की कमीज़ फटी थी,

पर माँ का उसे वो सिलना

त्योहारों पर पड़ोसी रिश्तेदारों का वो साथ।


सच में.....थी उस वक़्त में कुछ बात

घर में बना हलवा न जाने,

कितने घरो में खाया जाता था,

एक कटोरी चीनी में प्यार संजोया जाता था।


परस्त्री माता-बहन हुआ करती थी

रिश्तों की वो पवित्रता ,

दिन ब दिन निखरा करती थी।


आज इंसान की एक ही काया में

रावण विभीषण दोनों समा गए हैं

मुख चीनी हृदय कटुता

ज़ुबाँ पर सभी के बखूबी आ गए हैं।


घरों को बड़ा करते-करते,

हम खुद ही इतने बड़े हो गए,

आधुनिकता की आड़ में,

अपनी संस्कृति से परे हो गए।।


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