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तृप्ति वर्मा “अंतस”

Abstract

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तृप्ति वर्मा “अंतस”

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निराशा

निराशा

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एक सूनापन-सा जीवन में,

गहराता जाता है पल-पल

हर एक कदम जो बढ़ता है,

दिखला जाता है वो दर्पण।


इस थोथे-से परिवेश में मैं,

कैसे पाऊं अपनी मंज़िल ?

कोई बतला देगा मार्ग मुझे ?

जिस पर चल पाऊं मैं हरदम।


हर एक आस है उठती-सी,

हर एक प्यास ठहरी रहती।

हर क्षण उम्मीद की नव लहरें,

हर दिन एक शाम ढलती सी।


है जीवन ये कैसा ? जैसे,

हो एक निराशा का ये आँगन।

हर एक कदम जो बढ़ता है,

दिखला जाता है वो दर्पण।


इस दुनिया में ठहरे रहते हैं

लोग वही जो जीते हैं,

उनके सिवाय जो लोग यहाँ,

बस हार-हार कर मरते हैं।


है जीवन क्यों इतना लम्बा ?

कि काट न पाए काटे से,

इसका हर वार लगे ऐसे,

हर वार ही निश्चित हो जैसे।


एक सूनापन-सा जीवन में,

गहराता जाता है पल-पल

हर एक कदम जो बढ़ता है,

दिखला जाता है वो दर्पण।


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