नीला गगन
नीला गगन
मैं उम्र भर छटपटाती रही,
छूने को वो नीला गगन,
मगर हर बार थोड़ा उड़कर,
खींच लाती मुझे वापस पवन।
ऐसा नहीं कि मैने कोशिश ना की,
हर बार मेरी कोशिश भी विफल ना थी,
पर मैं गिरती थी सिर्फ इसलिये,
क्योंकि मेरे पास प्रेरणा स्त्रोत ना थी।
मैने अपने दम पर घरोंदा बनाया,
तिनका - तिनका उसमे जोड़ दिया,
पर जब भी बात उड़ने की आई,
जिम्मेवारियों ने मुझे रोक दिया।
स्त्री आज भी समाज में....
अपने मन से उड़ नहीं पाती,
और गर उड़ भी जाए जबरदस्ती,
तो परिवार की चिंता उसे हरदम सताती।
मैने भी भरी उड़ान कुछ समय,
पर ज्यादा दूर मैं उड़ ना पाई,
अपनी बौनी उड़ान के संग,
फिर धरा पर वापस आई।।