नारी
नारी
बोलो तो नुक्स निकालते हैं
चुप रहो तब भी निकालते हैं
अपनी अल्फ़ाजो को
पिरोते पिरोते खुद ही
उलझ जाति है मन की धागो में
कितनी भी शिद्दत से चुनो
मोतियां टूट कर बिखर ही जातें हैं
लहरों में कहां होता है सब्र
फिर भी कीनारा पा ही लेते हैं
बचपन से लहजा की
पाठ पढ़ते पढ़ते
अंजाने में कब बेजुबान बन गये
कुदरत का दिया दर्दनाक तकलीफ को
झेलने की तैयारी में
सहने की सीमा तैय करना भूल गये
ना जाने कितने अनचाहे तकलीफों को
झेलते ही रहे
कोई भी आके उसे तोड़ा मरोड़ा
झिंझोड़ के रख दीया
फीर भी मुंह से
उफ़ तक ना निकला
कम से कम
उसकी आबरू को
आंचल में ही संजोये रहने दो
बार बार उसे चुनौती मत दो
मत भूलो कि ये
तूफ़ान से पहले की चुप्पी है
नारी सृष्टि है और प्रलय भी
उसे मां ही बने रहने दो
संहारिनी को न्योता मत दो।
