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Shakuntla Agarwal

Abstract

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Shakuntla Agarwal

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||"मुखौटा"||

||"मुखौटा"||

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इंसानी फ़ितरत है, मुखौटे ओढ़ने की,

मुखौटे ओढ़ते रहते हैं, जीते रहते हैं,

ख़ुशियों का आवरण ओढ़,

दर्द को पीते रहते हैं,


आज फुर्सत किसे है, अंदर झाँकने की,

बाहरी आवरण को ही सीते रहते हैं,

दुनिया एक सर्कस है ज़नाब,

ताउम्र जोकर की तरह जीते रहते हैं,


गम कितना भी गहरा हो सीने में,

लबों पे हंसी का जामा पहन जीते रहते हैं,

हँसने वालों के साथ हँसती रहती है यह दुनिया,

इसी को चीरतार्थ करते रहते हैं,


ताउम्र नेता - अभिनेता झूठ का मुखौटा ओढ़,

पब्लिक को ग़ुमराह करते रहते हैं,

झोलियाँ भर गई जब इनकी,

उसी पब्लिक को इमोशनल फूल कहते हैं,


दिखावटी दुनिया में अव्वल दिखाने के चक्कर में,

ताउम्र दिखावटी मुखौटा पहन जीते रहते हैं !

दुनिया जानती भी हैं, पहचानती भी है,

मुखौटे की असलियत क्या है,

फ़िर भी जाने क्यों भ्रम में जीते रहते हैं,


ये दुनिया एक रंगमंच है ज़नाब,

सब अपना-अपना अभिनय करते रहते हैं,

ताउम्र हम कठपुतली बन नाचते रहते हैं,

डोरियाँ खिंच गई जिनकी,

वो दुनिया को अलविदा कहते हैं,


मुखौटा ओढ़ बचपने का,

मदमस्त होकर जी,

ज़हर को भी अमृत समझ के पी,

इंसानी फ़ितरत है कमियाँ बटोरने की,

"शकुन" नाकामियों में भी हसरतों के दिये जला के ज़ी !


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