ज़िंदा आदमी
ज़िंदा आदमी
मैं आवाज़ दे रहा हूँ उसको
जो आवाज़ सुन रहा है
कोई अपना पराया नहीं है
जो आवाज़ सुन रहा है
यहां सुनकर अनसुना करने वाले
बहुत से होनहार लोग है
जो मेरी आवाज सुनकर
मुझ तक चला आये
मुझे तलाश है उस शख़्स की
मुझ तक आना यानि
वो खुद में कहीं ज़िंदा है
शायद इसीलिए वो भी
इन हादसों से मुझसा ही शर्मिंदा है
यह देश जो मेरा मान है
मेरी पहचान है मेरा गुरुर है
कुछ दहशतगर्दों की सोच से
बाहर का पुलिंदा है
वो अनेक हो सकते है
लेकिन हम सब एक है
और जब तक हम एक है
कोई भी दहशतगर्द कोई भी आडंबरी
हमें भड़का नहीं सकता
हमारी एकता को मिटा नहीं सकता
यहां चलते-चलते क्षेत्र बदल जाते है
भाषा बदल जाती है
रँग-रूप बदल जाते है
मतभेद बदल जाते है
लेकिन कभी मनभेद नहीं होता
यह मुहब्बत का दौर है साहिब!
किसी के बहकाने से कम नहीं होता