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Kanchan Jharkhande

Abstract

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Kanchan Jharkhande

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ग्रामीण स्त्रियाँ

ग्रामीण स्त्रियाँ

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मुझे प्रेम करना नहीं आता

मैं निर्जीव जीव हूँ

मुझें आदेश दिए जाते हैं

मैं केवल निभाती हूँ उन्हें


मुझे अधिकार नही की 

मैं खुद से प्रेम करूँ

कुछ गलत कहा मैंने

नहीं-नहीं 

शायद कोई कठपुतली हूँ मैं


कठपुतली ही तो हूँ 

बर्तनों की गूंज में 

आवाज़ मेरी विलीन हो चुकी

करवटों की मोड़ में

परवाह की आह है


कभी सोचा है, 

उन स्त्रियों के बारे में

जिनके जीवन मे नवीनतम

आवरण विलुप्त है


वे शायद चूल्हों के धुओं में

धुंधली सी पड़ चुकी हैं

वे अपने गांव और जंगल से

कभी मुक्त नहीं हुई

लकड़ियों को ढोते-ढोते


लकड़ी सी हो चुकी हैं

एक कुआँ खेत में है 

पानी खीचने के लिए

एक कुआँ आँखों तले 

रखे बैठी है, 


आँसुओं के मोती भरने के लिये

पर न जाने कहाँ से फिर भी

उनके अंतर्मन में 

साहस की ज्वाला जलती रहती

वे तनिक भी नही थकती 


वे कड़ी धूप में जूती जाती हैं

खेत मे फसलों की कटान के लिए

फिर भी थकान की उफ्फ तक

नहीं करती।

 

वे स्त्रियाँ जो शहर से अज्ञात हैं

वे स्त्रियाँ जो ग्रामीण हो गई।


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