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Archana Srivastava

Abstract

4.8  

Archana Srivastava

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‘मन का मन’

‘मन का मन’

1 min
480



इस नगरी से दूर चलो मन

इस नगरी में प्यार नहीं है 

ये नगरी है पाषाणों की 

मानव सा व्यवहार नहीं है 


खुल के हँसना खुल के रोना

हृदयों का अधिकार नहीं है 

‘प्रेम’ टीस और बैर ‘प्रीत’है 

सत्य की वो ललकार नहीं है 


ये नगरी है पाषाणों की 

मानव सा व्यवहार नहीं है 


उगते सूर्य को जल अर्पित है 

डूबे तो लोचन भी मूँदे

भोग सबल को अमृत का दें

निर्बल को दुर्लभ दो बूँदे

मुखड़ों पे नक़ली मुसकाने

पावन अश्रुधार नहीं है 


ये नगरी है पाषाणों की 

मानव सा व्यवहार नहीं है 


प्रेम पाप है 

विनय त्याज्य है 

क्लेश पुण्य अब

अधर्म राज्य है 


तेरी वेदना व्यर्थ सखे अब

क्रिंदन तेरा अर्थहीन है

करुणा बहती मदिरालय में

दया भी अब तो मोह लीन है


तू इस काल से पीछे ठहरा 

ये काल तेरा विस्तार नहीं है 


ये नगरी है पाषाणों की 

मानव सा व्यवहार नहीं है 


शब्द बिके शृंगार बिके है

भावों के उपहार बिके हैं

नग्न चेतना नाच रही है

आलिंगन के हार बिके हैं


तेरी पीर का मोल यहाँ क्या

आए तुझे व्यापार नहीं है


ये नगरी है पाषाणों की 

मानव सा व्यवहार नहीं है 


बस अब दोनो वहाँ चले

जहाँ सृष्टि का अंतिम छोर

वहीं जहाँ पंछी जाते हैं

अंतिम उड़ान क्षितिज की ओर


प्रेम वहाँ फिर पावन होगा

हाँ कोई तेरा जैसा मन होगा

जगत जहाँ इस मानव का

मानव सा स्पंदन होगा


चल उड़ अब देर नहीं कर

यह तेरा संसार नहीं है


ये नगरी है पाषाणों की 

मानव सा व्यवहार नहीं है 


इस नगरी से दूर चलो मन

इस नगरी में प्यार नहीं है 

Archana Danish


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