झक
झक
ज़िन्दगी मुख़्तसर सी मोहलत है
चंद सिक्कों में बिकती जाती है
भूख लज़्ज़त की आरज़ू लेकर
रोज़ कूल्हों पे घिसती जाती है
उम्र तालीम में तबाह हुई
यूं जहाँ जीतने की चाह हुई
जंग रोटी की जीत बैठे जब
हार ख़्वाबों की बेपनाह हुई
क्या कहें अब कि क्या ज़रूरत है
फेफड़ो को हवा की क़िल्लत है
दाम अश्क़ों के ऊंचे लगते यहाँ
मेरे ग़म को हंसी की आदत है
हाय मसरूफियत की लत ऐसी
फुरसतें कर रहीं शिकायत हैं
ज़ुर्रतें हार मानती ही नहीं
जिस्म दर्दों की एक अमानत है
क्या अजब झक लगाए बैठे हो
खुद को खुद ही सताए बैठे हो
आंख झुकने पे जब आमादा है
नींद क्यूँकर उड़ाए बैठे हो ?
मान जाओ कि क्या बगावत है
हार जाना इक अच्छी आदत है
थक के बैठो ज़रा कभी 'दानिश'
चलते रहना बड़ी बुरी लत है
ज़िन्दगी मुख़्तसर सी मोहलत है
जिंदा रहना क्या कम मशक़्क़त है !
Archana Danish
