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मुझे भी होती है ईर्ष्या

मुझे भी होती है ईर्ष्या

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मेरे मन में होती है ईर्ष्या,

मुझे परिश्रम का फल न मिलता।

सर्वत्र समाज में अज्ञानी मूढ़ों का,  

जब चेहरा उपलब्धियों से खिलता।


ईमान धर्म की अब कही न पूंछ,

बस! बेईमानी का सिक्का चलता।

सच के पथ पर रहने वालों को,

कुछ भी न जीवन में न मिलता।


मेहनत से मैंने ग्रहण की शिक्षा,

जीवन में वो न मिला मुकाम।

जो पढ़ने लिखने में रहे फिसड्डी,

उनका फैला जग में नाम।


व्यवस्था से मुझे होती है ईर्ष्या,

कम नंबर से भी बन जाते कलेक्टर।

प्रतिभाओं का हो रहा अनादर,

पढ़ कर भी हैं रोड इंसपेक्टर।


सत्पथ का अनुगामी जो होते,

मुश्किल से एक घर है बनाते।

कपटी फ़रेबी तो झटपट ही

कुछ दिन में हैं महल सजाते।


ईर्ष्या मुझे होती है उनसे,

सफ़ेद झूठ को सच ही बताते।

चापलूसी व मक्खनबाजी करके,

एक दिन ऊँचे रसूखदार बन जाते।


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