मनु का पूत
मनु का पूत
हुआ है निष्ठुर मनु का पूत,
ध्वंस की जारी है करतूत !
धरा का घायल हुआ शरीर,
गगन में बिंधे आधुनिक तीर ।
सृष्टि में उथल-पुथल मच रही,
जगत की बिगड़ रही तस्वीर ।
चकरघिन्नी-सा है बे-हाल,
चढ़ा सिर पर विकास का भूत ।
ध्वंस की जारी है करतूत !
वन्य-जीवन का कर संहार,
बढ़ रहा मानव का परिवार ।
हो रहे लुप्त पिघल हिम-सिंधु,
धुंए के नभ तक उठे गुबार ।
विश्व पर है विपत्ति आसन्न,
प्रलय होगा मानव आहूत ।
ध्वंस की जारी है करतूत !
हुई पशुता, जड़ता असहाय,
नहीं जीने के बचे उपाय ।
यही है क्या मनु रीति-विधान
और मानवता का पर्याय ?
न जाने क्या देगा संदेश,
दौड़ कर मानवता का दूत ?
ध्वंस की जारी है करतूत !
