मणिकर्णिका घाट
मणिकर्णिका घाट
धूल भरी किताब से, मानिंद कुछ गुजरते पल
दिल की अलमारी में बंद, झांकते से रहते है।
कभी जज़्बातों की झाड़न से, उड़ती धूल, और फड़फड़ाते से पन्ने
यादों की रौशनी में, चमकते कुछ चेहरे "अपने"।
"अपने "जो साथ चले थे जिंदगी के सफर में,
सांसो की डोर टूटी, और छूट गये हाथ इस रहगुजर में।
जिंदगी आगे बढ़ती है, किस्से पीछे छूट जाते है।
जैसे आसमां वही रहता है, तारे टूट जाते है।
कभी जो पलटो पन्ने, गुजरी यादों के तो एहतियात इतनी बरतना,
वक्त के साथ जिनका रंग बदल चुका हो, उन पन्नों को धीमे से पलटना।
वहां से आयेगी तुम्हें यादों की सौंधी खुशबू,
धूल के कणों में बिखरी, किसी के जीवन्त पल हरसू।
सच है, जिंदगी किसी के लिये नहीं रुकती,
लेकिन सच ये भी है, अवशेषी स्मृतिया किसी अस्थि कलश मे नहीं छुपती,
बह जाते है गंगा में, मिट्टी के पुतले, हाड़ मांस के टुकड़े,
लेकिन आंखों के धरातल पर, जीवंत रहते है वो मुखड़े।
गंगा उध्दार करती है, इस क्षणभंगुर तन का,
अवशेषी स्मृतियो का कोई मणिकर्णिका घाट नहीं होता।
