STORYMIRROR

Kanchan Prabha

Abstract Classics Fantasy

3  

Kanchan Prabha

Abstract Classics Fantasy

मंजिल

मंजिल

1 min
272

परुष सा यह दिन रात

और लम्हे गुजर गये

विराम विहीन मुख

पराजय सी रह गयी 


कई कौमुदि निशा भी

गुुुजर गई

वातायन में खड़ी खड़ी 

गुजार दी थी


कई वत्सर आज

किसी परिमल के लहर

गुुुजरे तो लगा 

मेेरी इस कविता की

परिभाषा पुर्ण हुई


और मैं उस गुजरते हुये

पथिक के पाश में 

बंध कर आज

मंजिल पा लिया।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract