मज़दूरी एक मजबूरी
मज़दूरी एक मजबूरी
मजदूरी ही मेरे लाल के पेट की,
आग बुझाती है।
सूनी आंखों को सपना दिखाती है,
बेजान शरीर में जान लाती है।
मेरी मजबूरी मजदूरी कराती है,
मजदूरी ही मेरा कर्म है।
मेरा गर्व है,
मेरा अहंकार है,
चटख धूप मेरे बदन को जलाती है।
पसीने से भीगा शरीर
रात का चूल्हा जलाती है।
आसमान से बरसती आग
मेरी दो कौड़ी की औकात।
बिना मजदूरी अन्न का दाना बहुत दूर है।
शिक्षा के तो सपने चूर-चूर है।
टूटी हुई टपकती झोपड़ी एहसास दिलाती है कि
ग़रीबी एक अभिशाप है।
चटाई पर लेटा देश का भविष्य
मुरझाया चेहरा,
रंगत उदास
मुझे हकीकत के और पास ले जाती है।
जकड़े हाथ अकड़ी पीठ दर्द में डूबा बदन
सुबह फिर मजदूरी पर जाना है,
कि याद दिलाती है......