वजूद
वजूद
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अपने की चाह में ,
अपनों को छोड़कर आ गई।
सोचा.....
काश कोई तो अपना होगा,
पर वह तो पराया निकला।
चाही थी जगह दिल में ,
पैरों में जगह मिल गई।
पैरों में जगह क्या मिली,
पैरों की जूती ही बन गई।
ज्यादा समय भी ना बीता,
पैरों कि धूल बन गई,
ना जाने धूल बनकर कब,
पैरों से लिपट गई।
कुछ समय बाद वो भी जगह छिन ली गई,
पैरों को भी लगने लगा ये,
पीछे ही ..........पड़ गई।