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Alok Singh

Tragedy

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Alok Singh

Tragedy

मजदूर मजबूर

मजदूर मजबूर

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कि कन्धे मेरे यूं तो कमजोर हो गये हैं

शोलों पर चलकर पैर मेरे कोहोंनूर हो गये हैं

घर में बैठें लोगों की दुआयें आने लगी हैं

मजबूरियों की बदली बहुत छानें लगी है

निकलता है घर का पता रख आजकल जेबों में वो

मौत भी ,ज़िन्दगी की राहों में घात लगाने लगी है

वो हुकमरान तलाशते हैं खुशबू कागजी फूलों में

असल में काटों से अब खुशबू आने लगी है

हाथ में नस्तर लिये मलहम लगाते लोग सब

इंसानियत की पेशी अब हर रोज लग जानें लगी है

खिलखिलाते रंग भी धुलने लगे मौसम में अब

देखो कैसे मुस्कुराहट हर रोज कुम्हलाने लगी है



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