मिरा मौजू तिरि फ़ितरत
मिरा मौजू तिरि फ़ितरत
मैंने जज़्बात अपने कागज़ पर उकेरे है
मिरि ख़्वाहिश है के तू उन्हें आवाज़ दे दे।
तम्मन्ना है जिसे सुन कर कोई दीवाना
अपने फ़न को सुरीला आगाज़ दे दे।
मिरा मौजू तिरि फ़ितरत
परस्तिश ज्यूँ फरिश्तों सी।
लफ़ज़ -दर- लफ़्ज़ सुन कर जिसे कोई
हसीना, मुझको भी इश्क़ का इीनाम दे दे।
तकाज़ा है तकाज़ा था
तिरे संग ज़न्नत को देखूँ मैं।
झुकी पलकों से, अगरचे तू
मिरे कूचे में, कोई शब, दीदार दे दे।
मैंने जज़्बात अपने, कागज़ पर उकेरे है
मिरि ख़्वाहिश है के तू, उन्हें आवाज़ दे दे।
तम्मन्ना है जिसे सुन कर, कोई दीवाना
अपने फ़न को, सुरीला आगाज़ दे दे।
मुझे आग़ोश में ले ले कोई इल्ज़ाम दे दे।
फ़क़त इक रात को ही आ
चाहे कूचे पर मेरे ज़ालिम
मग़र उस रात को बना ज़न्नत
कि तुझसे मिलने को
तरस जाए मियां ग़ालिब
तकाज़ा है तकाज़ा था
तिरे संग ज़न्नत को देखूँ मैं।
झुकी पलकों से, अगरचे तू
मिरे कूचे में, कोई शब, दीदार दे दे।

