मिल रही मुस्कराहट
मिल रही मुस्कराहट
एक बार मैं घर से निकला,
बस में बैठा,
और आगे बढ़ा,
मोबाइल पे गाने बज रहे थे,
बस हिचकोले खाती आगे निकल रही थी,
मेरा ध्यान कभी कभी खिड़की के बाहर जाता,
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ देखकर मन खुश हो जाता,
सड़क के साथ बहती कल-कल नदियां,
कुदरती संगीत से मन को देती खुशियां,
एक नई उर्जा तनबदन में आती,
सफर की कठिनाई भूल जाती।
आगे यकायक बस रुकी,
एक खुबसूरती लड़की उसपे चढ़ी,
बाल खुले हुए थे,
होंठ सीले हुए थे,
कभी कभी ठहाका मार के हंसती,
तो गालों पे बने गड्ढों में खुब फबती,
हवा भी ओर जोर अंदर आती,
और उसकी जुल्फों को छेड़ जाती,
बो फिर झटकर उन्हें पुराने ढ़ंग में ले आती,
हवा फिर आती,
और उनको अपने वेग से उड़ा देती।
मैं पीछे बैठा था जल रहा था,
मन ही मन खुद को कोस रहा था,
कि एक हवा जो बेधड़क उस
हसीना को तंग कर रही थी,
वो हंस के जबाब दे रही थी,
अगर मैं कभी ऐसा करता,
तो रोमियो स्कैड पकड़ता,
चार पांच धाराएं लगाता,
दो तीन अंदर सेवा करवाता,
माफीनामा लिखता,
तब जाके बाहर निकलता।
उपर वाले तू बढ़ा बेदर्द,
ये कैसा बनाया संसार,
जो उसके साथ हमदर्द,
उसको तो भेजेगा अंदर,
और जो बिना कहे थे रहा दखल,
उसको मिल रही मुस्कराहट।
