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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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महामारी के मध्य

महामारी के मध्य

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फिर बंदिशें

नेपथ्य में चली गयीं हैं

घर से निकलने की

आजादी है

फिर वही फासले

फिर वही ढके ढके चेहरे

आंखों में संतोष

दिमाग में आशंकाए

एक दूसरे को

संशय से निहारते हुये

चल पड़े हैं।

यूँ तो

उड़ने के सामान बहुत हैं

फिर पांव पांव

झांकते हुये आस पास

जैसे कभी देखा न हो

वो नजारा

जो सामने है

या मुद्दत बाद

रहगुजर हैं नजारों के।

फिर उम्मीद है

सब कुछ पहले जैसा होगा

और ये भी कि

आदमी प्रकृति के

और करीब आएगा

आदमी सा लगेगा।

फिर वही प्यार

प्रकृति से

समाज से

निजाम से

खुद से

जैसे घर वापसी की जिज्ञासा

सक्रिय है

और अवरोध हैं

अपने ही घर लौटने में,

ठीक ठीक महामारी की तरह।


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