मेरी शाख !
मेरी शाख !
मैं तो जब भी करती हूँ
तुमसे बातें तब ही मैं
अपने आप को पा लेती हूँ
न दिखावा, न छलावा,
न बनावट, न सजावट,
मैं बस अपने मन की
परतों को खोलती जाती हूँ
और मेरे साथ साथ उन क्षणों
में तुम भी मंद-मंद मुस्कुराते हो
अपनी अँखियों के कोरों से
मेरी मस्ती मेरी चंचलता
मेरा अल्हड़पन मेरा लड़कपन
मेरा बचपना मेरा अपनापन व
मेरा यौवन तुम थाम लेते हो
अपने दोनों हाथों में तब
मैं काँप जाती हूँ
और नाज़ुक लता सी
लिपट जाती हूँ मानकर
तुम्हें अपनी शाख !