मेरी प्रकृति मेरी धरोहर
मेरी प्रकृति मेरी धरोहर


हर तरफ सुगंधित पुष्प पल्वित
कोमल पादप और शीतल बयार
हर्ष विभोर कर बावरी मन को
दिब्य तन प्रदान करे,
भानु चमक लिए उत्तरे पूर्व दिशा
अभीअभी, देह अग्नि तप्त करे।।
गुंजन भौरे सृंगार करे पुष्प के
नाच मयूर अंगीकार वर्षा के
मदमस्त हवा के प्रवाह ने
देखो कैसा उत्साह बढाया।।
मेरे उर अंदर ये
लगे दुल्हन सजी हो जैसे
मेरी ये धरती माँ।।
जितना भी जानु इसको ये उतनी ही विचित्र लगे।
प्रेम प्रणय करते खग बिहग,
और पर्वतों का ये ऊंचा झुंड
घनघोर घटा अद्भुत छटा गोधूलि बेला।।
मुझे याद दिला गई बचपन की
जब मैं खेला करता था आँचल में इसके।।
कभी ऊंचे पगडंडियों पे औऱ कभी नदी तट पे
खेतों में जब लहरा के पीली सरसों
सुगन्ध अपना छोड़े।
मन को हर्षित कर देती थी भीनी पयोली ये।।