मज़दूर और समाज
मज़दूर और समाज
अपनी मज़बूरी को छुपाता मज़दूर,
देह पे फटे वस्त्र को संभालता मज़दूर।।
ग़रीबी में जिसकी जिंदगी बेहाल
उस मजबूर मजदूर मिट्टी के लाल,
कब नसीब होगी उसको उसकी अपनी
खुशियां जीवन जीता गया वो फटे हाल
अपनो के लिए अपनी जीवन की बलि
देकर भी उफ़ तक न करे हर हाल।।
अपनी मज़बूरी को छुपाता मज़दूर।
देह पे फटे वस्त्र को संभालता मज़दूर।।
शाम को घर पहुॅंचे थक हार,
सुबह की फिक्र में रात गुजार,
ना आंखों में चमक न दिल में मलाल,
बस जिंदगी जीते रहे तंगहाल।
जो आज मिला कुछ शाम को,
वो मिलता रहे यही मलाल,
अपनी मज़बूरी को छुपाता मजदूर।
देह पे फटे वस्त्र को सम्भालता मज़दूर।।
न सर्दी देखी न जून की गर्म उमस
बस देखी बच्चों की भूख बेबस,
अपनी लाचारी को छुपाता वो मज़दूर
पर किसी के आगे हाथ न फैलाता वो
मज़दूर, स्वभिमान से जीता वो मज़दूर।।
हमको भी ये सिखाता मज़दूर,
हारना क्या तुफानों से, जब कश्ती के खेवनहार
खुद हो, तूफान भले लाखों आये,
अड़िग बन जा अपने लक्ष्यों पे समंदर पार खुद ब खुद हो।।
