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Suresh Koundal

Tragedy

4.6  

Suresh Koundal

Tragedy

मेरी खामोशियाँ

मेरी खामोशियाँ

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बड़े नादां थे जो कभी हमको

न समझ आते थे अल्फ़ाज़ भी,

तज़ुर्बे वक्त ने वो दिए हमको कि

अब समझने लगे हैं खामोशियाँ ।

ज़ुबां चुप ही रहें तो गनीमत समझो , 

कई राज़ गहरे दबाए बैठी हैं ये खामोशियाँ ।

कान लगाओ, ज़रा कोशिश तो करो, सुनने की,

बहुत शोर, बहुत शोर करती हैं ये खामोशियाँ ।

यादों की कसक हवा से जाने क्या कहती है ,

मदहोशियों में गुनगुनाने लग जाती हैं ये खामोशियाँ ।

अंधेरे रास जिन्हें आ जायें, उजाले मायने नही रखते,

वो फिर बोला नहीं करते ,जिन्हें भा जाती हैं ये खामोशियाँ ।

कुछ दर्द ऐसे हैं जो ये आवाज़ छीन लिया करते हैं ,

यूँ बेवजह दस्तक नहीं दिया करती हैं ये खामोशियाँ ।

इस कदर अजनबी हो गया ये शहर अनजान,

रुसवाईयों से बेनूर और बदरंग हुई ये रंगीन गलियां ।

निभाते रहे वफ़ाएं उनसे, वो रहे करते रहे चालाकियाँ,

किस्से बेवफाई के उनकी, सुना जाती हैं ये खामोशियाँ ।

आँखें नम न हों कभी उनकी ,

ना की कभी ऐसी ये गुस्ताखियां ।

टूट कर प्यार में किसी बेदर्द के ,

बयाँ करती हैं अब आंखें मेरी ये खामोशियाँ ।।



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