मेरी ईप्सा
मेरी ईप्सा
मेरे ईप्सा के मौसम में
वो छम छम कर के आती है
कभी आँखें नचाती है
कभी दिल को लुभाती है
डूब जाता हूँ मैं भी उसकी ,चूड़ी की खनखन में
जब हाथों को उठा वो,बिखरी ज़ुल्फ़ें सुलझाती है
मेरे दिल के कोने में
मेरे संग रास रचाती है
हृदय के चारों कोष्ठकों पर
बस वो ही समाती है
कहीं रुक जाए न उसका,आना मेरे दिल में
प्राणायाम करने को,उसकी आहटें जगाती हैं
डर है उसे खोने में
जो बस सपनों में आती है
मेरे सूने से उपवन में
यथार्थ की झलक दिखाती है
कभी मिल पाये उससे यदि,इस मूल जीवन में
कहेंगे डोर से जुड़ जाओ,जो नये पुष्प खिलाती है!
(ईप्सा-चाहत,चाह)