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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Romance

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Romance

मेरी गुंजन की आवाज हो तुम

मेरी गुंजन की आवाज हो तुम

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मेरी उन्मत्त प्रीति अकिंचन

पा लेती है तो पाने को

मधुर प्रणय की जगी चाह को

बहला लेती है गुंजन-रागों से 

परन्तु हिय को तृप्त करे जो

वह अश्रु भरी गागर हो तुम

श्वांसों की सरगम पुरातन हो तुम।


मेरी प्रीति के संदेशों को

शांत स्वरों को देती वाणी

यदि होता संभव तो तुम

मनोभावों को समझती मेरी

तेरी अँखियों की नादानी ने

दे गई पिपासित तप्त मरुभूमि

हृदय कमल में वासित निर्मल

नदिया की भावित लहर थी तुम। 


सोच-सोच कर थकी कामना

वेदनाऐं पिपासित हैं

किस तरह जी की पीड़ा दिखलाऊँ

दर्पण मेरा टूटा है

खंडित कर दूँ झिझकों को

निश्शब्दों में भर दूँ मन की ज्वाला

मेरे अलकों की परिभाषा हो तुम। 


अंचल हो आगर हो निर्झर की बूंदों में

निर्मल-निर्मल कोमल कविता हो

दूर गई बिछड़ी मन की डाली से

दे गई अश्रु की हिचकी मुझको

कंठों में डाली कंपित माला

तप्त होती माधुर्य रोम-रोम में

व्याकुल विवश व्यथा दे डाली

आकुल हो खोजे कस्तूरी बन-बन

मेरी आशा की मृगनयनी हो तुम।



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