STORYMIRROR

Fardeen Ahmad

Abstract Drama Inspirational

5.0  

Fardeen Ahmad

Abstract Drama Inspirational

मेरे दोस्त अब वक़्त आ गया है

मेरे दोस्त अब वक़्त आ गया है

2 mins
541


मेरे दोस्त वक़्त आ गया है

वक़्त आ गया है कि अब कमर कस ली जाए।

वक़्त आ गया है कि ज़िम्मेदारों को उनका फ़र्ज़ याद दिलाया जाए।


ऐसे नही होने वाली सही मायनों में मुल्क की तरक्की,

वक़्त आ गया है कि अपनी आवाजों को अमल में लाया जाए।


मेरे दोस्त अब हम चुप कैसे बैठ सकते हैं

जब हमारे देश को हमारी ज़रूरत है ?

मेरे दोस्त अब हम चुप कैसे बैठ सकते हैं

जब हमारे देश को हमारी ज़रूरत है ?


अब हम मुल्क को उनके हवाले नही छोड़ सकते।

जो मज़हब और ज़ात के नाम पर बदअमनी फ़ैलाते जा रहे हैं।


जो मुल्क को दीमक की तरह खाते जा रहे हैं।

जिनके लिए वो बेक़सूर किसान, मासूम बच्चियां, बेसहारा औरतें,

सरहद पर हमारे हिम्मती जवान, गरीबी से जूझ रही अवाम,

और जोश से भरे तालिब-ए-इल्म की रहनुमाई करना

सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक का ज़रिया हो,

ताकि वो अपने लालच के बक्से को उन हड्डियों से भर सकें

जिसके लिए वो अपनी राल टपकाते हुए

हमारी रहनुमाई के लिए आगे बढ़े थे।


दफ्तर मैं बैठे अफसर भी

इसी बक्से की कुछ हड्डियों के लालच में

दुम हिलाते हुए उनके

इतने वफ़ादार हो जाते हैं,

और वो भूल से जाते हैं कि

वो मुलाज़िम अवाम के हैं।

तमाम मसलों को हल करने के लिए

वादों के इतने गुब्बारे फुलाना,

जिसके अंदर सिर्फ हवा है

इनका पेशा बन चुका है।

मेरे दोस्त एक तिहाई आबादी की

ताक़त को मुल्क की मजमूई तरक्की में

लगाने का वक़्त आ गया है।


वक़्त आ गया है कि हम इत्र की खुशबू की तरह

कोने-कोने में पहुँच जायें और

वहाँ फैलीं उन हड्डियों की लालच की बू को

हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म कर दें।


जो कुर्सियां उनके लालच के

भारी बोझ को सहते सहते थक चुकी हैं,

उन ज़िम्मेदाराना ओहदे पर

पहुँचने का वक़्त आ गया है।


एक बार, सिर्फ एक बार अपने परिवार के साथ साथ

अपने मुल्क की तरक्की के नज़रिए से

अपने मुस्तकबिल के बारे में सोचिये।


एक बार, सिर्फ एक बार देश की अवाम को

उनके हक़ के बारे में अमन के नज़रिए से

सुनता हुआ तसव्वुर कीजिये।


एक बार, सिर्फ एक बार मुल्क में

चैन-ओ-अमन बनाने के लालच को

महसूस करके देखिये।


वक़्त आ गया है,

अब वक़्त आ गया है मेरे दोस्त !


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract